फ्रांसीसी क्रांति के कारण और परिणाम

 

फ्राँसीसी क्रांति ( French Revolution) 5 May 1789 – 9 Nov 1799

विश्व इतिहास में फ्राँसीसी क्रांति उन प्रमुख घटनाओं में से एक है का होने का जिसने आधुनिक युग में मानव जीवन एवं समाज को सर्वाधिक प्रभावित किया है। 1789 में शुरू हुई फ्राँसीसी क्रांति ने न केवल फ्रांस अपितु समस्त यूरोप के जन-जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन ला दिया। किंतु, इस क्रांति ने बहुआयामी सकारात्मक परिवर्तनों के साथ ही कुछ नकारात्मक एवं विवादित परिणामों को भी उत्पन्न किया। 18वीं सदी में इंग्लैंड के बाद फ्रांस यूरोप का सर्वाधिक शक्तिशाली राष्ट्र था।

• फ्रांस के शासक लुई 14वें (1643-1715) ने अनेक युद्धों के माध्यम से फ्रांस की सीमाओं का विस्तार किया, सामंतों की शक्ति को सीमित कर राज्य की शक्तियों को अपने नियंत्रण में रखा। यद्यपि लुई 14वें के निरंतर युद्धों फैक्ट्री और से फ्रांस का राजस्व कमजोर हुआ, तथापि उसके उत्तराधिकारी लुई 15वें (1715-74) ने लगभग साठ वर्ष तक शासन किया। परंतु दुर्भाग्य से वह एक अयोग्य शासक था जिसने भोग-विलास में लिप्त होकर राज्य के खजाने को लगभग खाली कर दिया। 1789 की महान क्रांति से पूर्व फ्रांस की राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति के लिये ‘पुरातन व्यवस्था’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। राजनीतिक दृष्टि से इसका तात्पर्य निरंकुश शासकों के शासन से है, तो आर्थिक दृष्टि से इसका अभिप्राय है, एक ऐसी व्यवस्था जिसमें कृषि की प्रधानता हो, परिवहन व संचार धीमा हो तथा वित्तीय संस्था अनुभवहीन और अकुशल हो।

 

 

• पुरातन व्यवस्था के अंतर्गत समाज में आभिजात्य वर्ग को व्यापक विशेषाधिकार वंशानुगत रूप से प्राप्त रहे जबकि शेष वर्गों पर ऊँचे करों एवं सामंती लगानों का भारी बोझ था। वस्तुतः 18वीं सदी में केवल फ्रांस ही नहीं अपितु संपूर्ण यूरोप पुरातन व्यवस्था से संचालित हो रहा था। कुल मिलाकर कहा जाए तो 18वीं सदी के अंत तक यह स्पष्ट हो चुका था कि यूरोप जर्जर अवस्था में पहुँच चुका है। हालाँकि इस विषय में स्पष्टता नहीं थी कि यह जर्जर यूरोप टूटकर कहाँ गिरेगा, पर इसका गिरना तो निश्चित ही था। 1789 ई. के मध्य में यह चरमराकर फ्रांस में गिरा क्योंकि वहाँ क्रांति के लिये उर्वर भूमि तैयार हो चुकी थी।

 

 

फ्रांसीसी क्रांति के कारण:–
• सामान्यतः क्रांतियों की उत्पत्ति के कारण तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्थाओं में ही निहित होते हैं। फ्रांस की क्रांति भी इससे अलग नहीं है। वर्तमान विश्व में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व सामान्य शब्द हैं। लेकिन, इनकी जननी 1789 ई. की महान फ्राँसीसी क्रांति ही है। यह क्रांति किसी एक कारक से घटित नहीं हुई अपितु विभिन्न कारकों का सामूहिक परिणाम थी। ये कारक निम्नवत् हैं-

 

राजनीतिक कारक:–
• फ्रांस में राजत्व के दैवी सिद्धांत पर आधारित निरंकुश राजतंत्र था जिसमें शासक के पास असीमित अधिकार थे। उसके द्वारा बोला गया वाक्य ही कानून था। लुई 14वें के शासनकाल में निरंकुशता सर्वोच्च स्तर पर पहुँच गई। वह स्पष्ट कहता था. “मैं ही राज्य हूँ” (I am the State) उसने सैन्य शक्ति को आधार बनाकर फ्रांस की सीमाओं का विस्तार किया। लुई 14वें का उत्तराधिकारी लुई 15वाँ अयोग्य और विलासी शासक था जिसने ऑस्ट्रिया के उत्तराधिकारी और सप्तवर्षीय बुद्ध में भाग लेकर फ्रांस के राजकोष को भारी क्षति पहुँचाई (क्योंकि इन युद्धों से फ्राँस को कोई लाभ नहीं हुआ)। उसके कारण फ्राँस की प्रतिष्ठा को भी धक्का लगा। उसने वहां के महलों पर बेतहाशा धन खर्च किया जिसके कारण राजकोष रिक्त होता बला गया|

• क्रांति के समय लुई 16यों शासक था। वह भी लुई 15वें के समान ही अयोग्य शासक था। लुई 16वें में इच्छाशक्ति एवं निर्णय बुद्धि का नितांत अभाव था। वह वर्साय के महलों में रहकर भोग विलास का जीवन बिताना चाहता था। उसके शासनकाल में राजमहल में भष्य आयोजनों, आमोद-प्रमोद तथा मेहमान नवासी में खुले हाथों से खर्च किया जा रहा था, जिससे राजकोष खाली हो चुका था। लुई 16वें की पत्नी मेरी आंत्यानेत भी फिजूल खर्च करने वाली महिला थी। उसे जन-साधारण की परेशानियों की कोई समझ नहीं थी। वर्माय के महल के चाहर जब लोग रोटी की मांग कर रहे थे तो उसने सुझाव दिया कि “अगर रोटी उपलब्ध नहीं है तो लोगों को केक खाना चाहिये।“

 

18वीं सदी के फ्राँस को यदि प्रशासन के स्तर पर आकलित करें तो यह स्पष्ट होता है कि शासन प्रणाली में सरकारी हस्तक्षेप और नियंत्रण व्याप्त था। प्रशासन में पद वंशानुगत हो चुके थे जहाँ न तो भर्ती होती थी और न ही प्रशिक्षण का कोई प्रबंध था। अतः शासन प्रणाली भ्रष्ट, निरंकुश, निष्क्रिय एवं शोषणकारी बन चुकी थी जिसका जनहित से कोई सरोकार नहीं था। प्रशासनिक अधिकारी केवल स्वहितों को अधिकतम करने की आकांक्षा से कार्य कर रहे थे। कानून व्यवस्था के स्तर पर एकरूपता का सर्वथा अभाव था क्योंकि फ्राँस के विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग कानून लागू थे। इसलिये ऐसा कहा जाता था, “जो बात किसी एक कस्बे में कानूनन सही थी, वही बात पाँच मील दूर के कस्बे में गैर-कानूनी हो जाती थी।“
 प्रांतीय स्तर पर तत्कालीन फ्राँस में दो तरह के प्रांत थे-पहला गवर्नमेंट प्रांत तथा दूसरा जेनेरालिते प्रांत। गवर्नमेंट प्रांतों में सामंतों का शासन था जबकि जेनेरालिते प्रांतों में फ्राँस के राजा द्वारा प्रशासक नियुक्त किया जाता था जिसे एवांदाँ कहा जाता था। दोनों तरह के प्रांतों में परम्पर प्रतिस्पद्धों से सदैव तनाव बना रहता था। सिविल तथा फौजदारी कानूनों में भिन्नता और विरोधाभास था। प्रांतों को इस भिन्नता से संपूर्ण फ्राँस में शासन व्यवस्था अव्यवस्थित एवं अराजकता पूर्ण थी।

 गौरतलब है कि तत्कालीन फ्राँस में भाषण, लेखन और प्रकाशम के स्तर पर कठोर प्रतिबंध थे, अतः आलोचना के अभाव में शासक यही समझते रहे कि राज्य में शांति एवं समृद्धि है। फ्राँस में कैथोलिक राजधर्म वा एवं प्रोटेस्टेंट अनुयायियों को कठोर भातनाएँ दी जाती थीं। अतः धार्मिक स्तर पर स्वतंत्रता के अभाव से तनाव एवं असंतोष व्याप्त था। कुल मिलाकर तत्कालीन फ्रांसीसी राजव्यवस्था के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि फ्राँस में कोई व्यवस्था ही नहीं थी तो अच्छी या बुरी व्यवस्था का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में क्राति का घटित होना कोई अप्रत्याशित घटना नहीं थी।

 

सामाजिक कारण:–
 तत्कालीन फ्राँसीसी समाज में व्याप्त असमानता क्रांति का दूसरा महत्त्वपूर्ण कारण थी। फ्राँस का समाज तीनu श्रेणियों अथवा वर्गों (Estates) में विभाजित था- पादरी, कुलीन एवं साधारण वर्ग। प्रथम दो श्रेणियों के लोगों को विशेष सुविधाएँ एवं अधिकार प्राप्त थे जबकि तृतीय वर्ग अधिकारविहीन था। क्रांति के समय फ्राँस की जनसंख्या दो करोड़ पचास लाख थी जिसमें विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग की संख्या लगभग दो लाख पचास हजार के बराबर थी अर्थात् कुल जनसंख्या का लगभग एक प्रतिशत, परंतु इस वर्ग के पास असीमित अधिकार एवं संसाधन थे। 18वीं शताब्दी का फ्राँसीसी समाज सामंतवादी प्रवृत्ति, असमानता और विशेषाधिकार आदि आते थे। यह के मूलभूत सिद्धांतों पर आधारित था और इस प्रकार से फ्राँसीसी समाज विशेषाधिकारयुक्त तथा विशेषाधिकारविहीन वर्ग में बँटा हुआ था—  तृतीय एस्टेट साधारण वर्ग-व्यापारी, साहूकार, उद्योगपति, चिकित्सक, साहित्यकार, किसान, मजदूर आदि

 

पादरी वर्ग (प्रथम एस्टेट):–
 1789 ई. की क्रांति से पूर्व फ्राँसीसी समाज में चर्च का विशेष महत्त्व था तथा इसके पदाधिकारी समाज के सर्वोच्च शिखर पर थे। कुल जनसंख्या में इनकी भागीदारी महज 0.5% थी, जबकि 20% से अधिक भूमि पर चर्च का आधिपत्य था। पादरी वर्ग भी दो भागों में विभाजित था उच्च पादरी वर्ग और निम्न पादरी वर्ग। उच्च पादरी वर्ग के पास असीमित अधिकार एवं अपार संसाधन थे। इन्हें किसानों से उनकी उपज का 10% भाग वसूल करने का अधिकार था जिसे टाइय/धमाँश कहा जाता था। इस वर्ग के विषय में रोचक तथ्य यह है कि ये स्वयं भोग-विलासी जीवन जीते थे, जबकि नागरकिों को सदैव साद‌गीपूर्ण जीवन बिताने का उपदेश देते थे। गौरतलब है कि उच्च पादरी वर्ग सभी प्रकार के ‘करों’ से मुक्त था जिसके कारण क्रांति काल में इनके प्रति जनता में गहरा असंतोष व्याप्त था।
 प्रथम एस्टेट के पादरियों में दूसरा वर्ग साधारण पादरी का था, जो निम्न स्तर का था। वस्तुतः ये साधारण पादरी तृतीय एस्टेट के समूह में से नियुक्त किए जाते थे| यह वर्ग चर्च के दैनिक धार्मिक कर्तव्यों का संपादन करता था। दरअसल यह वर्ग प्रथम एस्टेट में शामिल अवश्य था किंतु इसका जीवन-यापन सामान्य जनता के समान ही था। उच्च पादरी वर्ग द्वारा इनसे सदैव भेदभाव किया जाता था। वस्तुतः इन्हीं सब कारणों से साधारण पादरी वर्ग ने क्रांति के समय तृतीय एस्टेट के प्रति सहानुभूति प्रकट की तथा कुछ समय पश्चात् यह वर्ग क्रांति में स्वयं भी भागीदार बना।

 

कुलीन वर्ग (द्वितीय एस्टेट):–

इस समूह में सामंत, राजदरबारी तथा बड़े प्रशासनिक अधिकारी आदि आते थे। यह तत्कालीन फ्राँस का दूसरा विशेषाधिकार प्राप्त समूह था जिसके विशेषाधिकारों का हस्तांतरण वंशानुगत रूप से होता रहता था। फ्राँस की 25% भूमि पर इनका अधिकार था और दिलचस्प बात यह है कि इनकी भूमि ‘कर मुक्त’ थी, साथ ही इस वर्ग को किसानों से ‘कर’ वसूल करने का अधिकार प्राप्त टैले (भूमि कर), गैब्बल (नमक कर) आदि करों की वसूली आम नागरिकों से तो की जाती थी किंतु कुलीन वर्ग इन करों से मुक्त था।

 द्वितीय एस्टेट भी प्रथम एस्टेट के समान ही समरूप नहीं था बल्कि इसमें भी आर्थिक एवं क्षेत्रगत स्तर पर विभाजन था। उदाहरणस्वरूप कुलीन के विभिन्न वर्ग थे दरबारी कुलीन, पोशाकधारी कुलीन तथा देहाती कुलीन आदि। दरबारी कुलीन तुलनात्मक रूप से संपन्न थे तथा करों से प्राप्त आय में बड़ा हिस्सा रखते थे। दूसरी तरफ देहाती कुलीन गाँवों (देहात) में रहते थे तथा उनके पास आर्थिक साधन सीमित थे। इस प्रकार कुलीन वर्ग में आपसी विरोध ने सामाजिक असंतोष की आग में घी डालने का ही कार्य किया। लुई 14वें के काल में कुलीन वर्ग में तृतीय एस्टेट के कुछ लोगों को शामिल किया गया जिससे अंतर्विरोध और बढ़ता चला गया।

 

साधारण वर्ग (तृतीय एस्टेट):–
उपर्युक्त दोनों वर्षों के अतिरिक्त शेष सभी को साधारण वर्ग के अंतर्गत रखा जाता था। यद्यपि यह वर्ग विशेषाधिकार विहीन था तथापि इस वर्ग के लोगों में भी आर्थिक, सामाजिक एवं क्षेत्रीय स्तर पर आपसी विभेद अवश्य था। इस वर्ग के अंतर्गत व्यापारी, साहू‌कार, उद्योगपति, चिकित्सक, साहित्यकार, कलाकार, शिक्षक, किसान तथा मजदुर आदि शामिल थे। प्रथम दोनों वर्गों के समान हो तृतीय एस्टेट भी दो उपवर्गों मध्यम वर्ग (बुर्जुआ) तथा किसान में बँटा हुआ था |मध्यम वर्ग में लेखक, वकील, कलाकार, डॉक्टर, साहूकार, शिक्षक और व्यापारी आदि सम्मिलित थे। यह वर्ग न तो किसी तंत्र विशेष के अंतर्गत आता था और न ही किसी नियमित निकाय के अधीन संगठित था। हालाँकि यह वर्ग आर्थिक रूप से सशक्त तो था, किंतु इसे समाज में प्रतिष्ठा एवं सम्मान प्राप्त नहीं था तथा ये राजनीतिक अधिकारों से भी वंचित थे। पादरी एवं कुलीन वर्ग इनसे निम्न स्तरीय व्यवहार किया करते थे जिस कारण से मध्यम वर्ग में गहरा असंतोष व्याप्त था। इसी प्रकार व्यापारी, उद्योगपति तथा साहू‌कार वर्ग तत्कालीन फ्राँसीसी शासन एवं अर्थव्यवस्था से निराश था क्योंकि विभिन्न करों के कारण न केवल व्यापार-वाणिज्य के स्तर पर कठिनाइयाँ थी, बल्कि गिल्ड प्रणाली, मुद्रा की असमानता तथा नाप-तोल की भिन्नता से व्यापार व्यवस्था भी विकृत हो चुकी थी।

तृतीय वर्ग में ही किसान एवं मजदूर भी शामिल थे। यूँ तो किसान कुल फ्राँसीसी जनसख्या का 80% से अधिक थे, लेकिन पुरातन व्यवस्था में वे दयनीय स्थिति में जीवन यापन कर रहे थे। राजपरिवार, शासक, कुलीन वर्ग तथा पादरियों के अधिकांश व्यय का भार कृषक वर्ग को ही सहना पड़ता था। विभिन्न करों के भुगतान के अलावा कृषक वर्ग को सामंतों को निःशुल्क श्रम जैसी सेवाएँ देनी पड़ती थी, कर वसूली सख्त होती थी तथा अकाल एवं सूखा आदि आपदाओं के समय भी कर माफी की सुविधा न थी। अतः किसानों का जीवन तंगहाल था जहाँ न तो भरपेट भोजन सुलभ था और न ही तन ढंकने को पर्याप्त कपड़े थे। किसानों की आय का लगभग 85% भाग करों की अदायगी में ही खर्च हो जाता था। इतिहासकार लियो गरशाँय ने कहा किसान इतने दुःखी हो चुके थे कि वे स्वयं ही एक क्रांतिकारी तत्त्व के रूप में परिणत हो गए। कुल मिलाकर कहा जाए तो तत्कालीन फ्राँसीसी समाज में एक प्रकार का तनाव व्याप्त था। समाज परस्पर दो विरोधी भागों में बंटा हुआ था, एक भाग राजनीतिक दृष्टि से प्रभावशाली था तो दूसरा भाग प्राकृतिक अधिकारों से भी विहीन था। अतः दोनों में संघर्ष अवश्यंभावी था जो 1789 ई. की क्रांति के रूप में प्रकट हुआ साधारण वर्ग (तृतीय एस्टेट):–

• उपर्युक्त दोनों वर्षों के अतिरिक्त शेष सभी को साधारण वर्ग के अंतर्गत रखा जाता था। यद्यपि यह वर्ग विशेषाधिकार विहीन था तथापि इस वर्ग के लोगों में भी आर्थिक, सामाजिक एवं क्षेत्रीय स्तर पर आपसी विभेद अवश्य था। इस वर्ग के अंतर्गत व्यापारी, साहू‌कार, उद्योगपति, चिकित्सक, साहित्यकार, कलाकार, शिक्षक, किसान तथा मजदुर आदि शामिल थे। प्रथम दोनों वर्गों के समान हो तृतीय एस्टेट भी दो उपवर्गों मध्यम वर्ग (बुर्जुआ) तथा किसान में बँटा हुआ था |मध्यम वर्ग में लेखक, वकील, कलाकार, डॉक्टर, साहूकार, शिक्षक और व्यापारी आदि सम्मिलित थे। यह वर्ग न तो किसी तंत्र विशेष के अंतर्गत आता था और न ही किसी नियमित निकाय के अधीन संगठित था। हालाँकि यह वर्ग आर्थिक रूप से सशक्त तो था, किंतु इसे समाज में प्रतिष्ठा एवं सम्मान प्राप्त नहीं था तथा ये राजनीतिक अधिकारों से भी वंचित थे। पादरी एवं कुलीन वर्ग इनसे निम्न स्तरीय व्यवहार किया करते थे जिस कारण से मध्यम वर्ग में गहरा असंतोष व्याप्त था। इसी प्रकार व्यापारी, उद्योगपति तथा साहू‌कार वर्ग तत्कालीन फ्राँसीसी शासन एवं अर्थव्यवस्था से निराश था क्योंकि विभिन्न करों के कारण न केवल व्यापार-वाणिज्य के स्तर पर कठिनाइयाँ थी, बल्कि गिल्ड प्रणाली, मुद्रा की असमानता तथा नाप-तोल की भिन्नता से व्यापार व्यवस्था भी विकृत हो चुकी थी।

तृतीय वर्ग में ही किसान एवं मजदूर भी शामिल थे। यूँ तो किसान कुल फ्राँसीसी जनसख्या का 80% से अधिक थे, लेकिन पुरातन व्यवस्था में वे दयनीय स्थिति में जीवन यापन कर रहे थे। राजपरिवार, शासक, कुलीन वर्ग तथा पादरियों के अधिकांश व्यय का भार कृषक वर्ग को ही सहना पड़ता था। विभिन्न करों के भुगतान के अलावा कृषक वर्ग को सामंतों को निःशुल्क श्रम जैसी सेवाएँ देनी पड़ती थी, कर वसूली सख्त होती थी तथा अकाल एवं सूखा आदि आपदाओं के समय भी कर माफी की सुविधा न थी। अतः किसानों का जीवन तंगहाल था जहाँ न तो भरपेट भोजन सुलभ था और न ही तन ढंकने को पर्याप्त कपड़े थे। किसानों की आय का लगभग 85% भाग करों की अदायगी में ही खर्च हो जाता था। इतिहासकार लियो गरशाँय ने कहा किसान इतने दुःखी हो चुके थे कि वे स्वयं ही एक क्रांतिकारी तत्त्व के रूप में परिणत हो गए। कुल मिलाकर कहा जाए तो तत्कालीन फ्राँसीसी समाज में एक प्रकार का तनाव व्याप्त था। समाज परस्पर दो विरोधी भागों में बंटा हुआ था, एक भाग राजनीतिक दृष्टि से प्रभावशाली था तो दूसरा भाग प्राकृतिक अधिकारों से भी विहीन था। अतः दोनों में संघर्ष अवश्यंभावी था जो 1789 ई. की क्रांति के रूप में प्रकट हुआ 

 

आर्थिक कारक:–

कई विद्वानों का मानना है कि क्रांति का मूल कारण सतत् गतिरोध और पिछड़ेपन के कारण निरंतर जर्जर होती अर्थव्यवस्था में छिपा था। फ्राँसीसी सरकार आर्थिक रूप से दिवालिया होने के कगार पर पहुँच गई थी। लुई 14वें के शासनकाल से युद्धों एवं निर्माण कार्यों को अधिकता से राजकोष लगभग खाली हो चुका था। लुई 15वें ने ऑस्ट्रिया के उत्तराधिकार तथा सप्तवर्षीय युद्धों में भाग लेकर फ्राँस की आर्थिक स्थिति को और खराब कर दिया। लुई 16वें ने अपने आमोद-प्रमोद और शानो-शौकत से सरकार को दिवालिया ही बना दिया। ऐसी स्थिति में जब सरकार को कर्ज मिलना भी बंद हो गया तो अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिये विभिन्न वित्त विशेषज्ञों का सहयोग लिया गया, किंतु कुलीन वर्ग के षड्‌यंत्रों के कारण कोई भी प्रयास क्रियान्वित नहीं हो पाया।

अतः नए कर लगाने का निर्णय लिया गया लेकिन जनता ने इसका विरोध कर एस्टेट्स जनरल संस्था का अधिवेशन बुलाने की मांग की जिसमें क्रांति का विस्फोट हुआ। एस्टेट्स जनरल फ्राँस की एक पुरानी प्रतिनिधि सभा थी। वस्तुतः फ्राँस के आर्थिक संकट को व्यापारिक उतार-चढ़ाव एवं मंदी ने और भी अधिक गंभीर बना दिया था। 1778 ई. में फ्रौसीसी अर्थव्यवस्था आर्थिक मंदी के चक्र में उलझ चुकी थी। 1785-86 ई. में चारे की कमी के कारण पशुधन की किल्लत होने लगी थी। अकाल एवं सूखे के कारण फसलों का उत्पादन घटने लगा था और कृषक समुदाय की आर्थिक स्थिति बद से बदतर हो गई। फलस्वरूप बदलाव के लिये क्रांति के विचारों का जनसामान्य में भी विस्तार ही गया।

 

 

क्रांति में विचारकों की भूमिका:–

• प्रबोधन काल में फ्रांस में अनेक लेखक, विचारक एवं दार्शनिक हुए, जिन्होंने फ्रांस की पुरातन व्यवस्था में परिवर्तन हेतु जनसाधारण को जागरूक एवं प्रेरित किया।

मॉन्टेस्क्यू :  फ्राँसीसी राजतंत्र की आलोचना करने वाला पहला प्रमुख व्यक्ति मॉन्टेस्क्यू था। उसने अपनी विश्वप्रसिद्ध पुस्तक ‘कानून की आत्मा’ (‘The Spirit of Laws) में फ्राँसीसी शासकों के देवत्व के अधिकार की कटु आलोचना की। मॉन्टेस्क्यू ने संवैधानिक व्यवस्था और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का समर्थन किया। उसने संवैधानिक शासन के अंतर्गत विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका नामक तीनों अंगों में शक्ति के समुचित पृथक्करण एवं एक दूसरे से संतुलित होने को व्यवस्था की मांग की। शक्ति पार्थक्य सिद्धांत के द्वारा मॉन्टेस्क्यू ने फ्राँस की निरंकुश राजव्यवस्था पर चोट की। यद्यपि यह भी सत्य है कि मॉन्टेस्क्यू के लेखन में न तो क्रांति की बात थी और न ही राजतंत्र को समाप्त करने की। उसने केवल निरंकुश राजतंत्र के दोषों को उज्जागर किया|

 वॉल्टेयर ने चर्च की भ्रष्ट एवं अन्यायपूर्ण व्यवस्था के दोषों को प्रकट करते हुए लिखा, “अब तो कोई ईसाई बचा नहीं, क्योंकि एक ही ईसाई था और उसे भी सूली पर चढ़ा दिया गया।“ उसने धर्म के सभी बाह्य आडंबरों का खंडन किया।

 रूसो के विचार  : – फ्रांसीसी क्रांति पर रूसो के विचारों का गहरा प्रभाव था। रूसो ने स्पष्ट लिखा है, “मनुष्य स्वतंत्र पैदा हुआ है, किंतु वह सर्वत्र बंधनों से जकड़ा हुआ है।“ इन जंजीरों से मुक्ति का एकमात्र उपाय है कि हम प्राकृतिक आदिम व्यवस्था की ओर लौटें। रूसो के विचारों का फ्राँसीसी समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा, जिसकी पुष्टि फ्राँसीसी क्रांति के नायक नेपोलियन के इस कथन से होती है, “यदि रूसो न होता तो फ्राँस में क्रांति नहीं होती।“

 दिदरों :-  इसी क्रम में फ्राँसीसी विद्वान दिदरों ने 18वीं सदी के सभी श्रेष्ठ विचारकों की रचनाओं को संकलित कर जनसामान्य को सुलभ कराया तथा ज्ञानकोश (Encyclopedia) का प्रकाशन भी करवाया। इसमें चर्च की भ्रष्ट व्यवस्था, शासन की संवेदनहीनता एवं प्रत्येक क्षेत्र की असमानता को प्रकट किया गया है। फिजियोक्रेट स्कूल से जुड़े तुर्गा, क्वेसने आदि अर्थशास्त्रियों ने आलोचनात्मक विश्लेषण कर फ्राँस की तत्कालीन अर्थव्यवस्था एवं उसके विविध पक्षों को जनसामान्य तक पहुँचाया।

 

 

 

 

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